
कोई भी न रहा सहारा ।
मनुज फिरे बन कर बेचारा ।
शक्ति नहीं आशक्ति नहीं ,
भक्ति नहीं और मुक्ति नहीं ।
कुंठा प्रकटित प्रति मस्तक पर,
चिंता बढ़ती हर दस्तक पर ॥
एक ही प्रश्न निरंतर है ।
क्या मेरा है क्या है तुम्हारा ?
....शेष आगामी संग्रह मे ....
आओ जख्मों का कुछ हिसाब करें । दर्द को फ़िर से लाजवाब करें॥
रात देर तक जाग के देखा,
कोई सितारा बुझा नहीं था।
मैं ही अकेला था महफ़िल में,
फ़िर भी मुझ पर फ़िदा नहीं था।
चाँद भी मुझ सा फिक्रमंद था,
मेरे गम से जुदा नहीं था।
कैसे मजा तुम दर्द का पाते ,
इश्क किसी से हुआ नहीं था.
यह काल कहाँ ले जाएगा , है यक्छा प्रश्न नव पीढी का .
रोहन को आधार मिला , टूटे बांसों की सीढी का ॥
योवन की उर्वरा लगा , अवसाद की फसलें काट रहे .
तन के तरुवर को मृदा बना , अनंत कूप को पाट रहे ॥
असफलता से लड़ते-लड़ते, रेखाएं बनी ललाटों पर ।
मन्दिर-मस्जिद भी ऊब चुके , हैं ताले पड़े कपाटों पर ॥
सुधा कलश भी सूख गया , बस गरल घुला है तंत्रों में ।
विष को अमृत करने वाली , अब शक्ति नहीं है मंत्रों में ॥
क्छुधा ने टाप को विजित किया ,महालाक्छ्या निज स्वार्थ्य हुआ।
दर्शन के अंतश से निकला वो महाज्ञान भी व्यर्थ हुआ ॥
है पास हमारे जो कुछ भी , यदि उसमें संतोष नहीं ।
साधन कम हैं याचक ज्यादा , प्रकृति का इसमें दोष नहीं ॥
संसार बिचारा क्या देगा , जो स्वयं खड़ा झोली फैलाये ।
इससे लेने से अच्छा है , हम इसको कुछ देकर जायें ॥
के ० के ० मिश्रा
''इश्क '' सुल्तानपुरी ।