Thursday, May 22, 2008

कैसे बनायें सिलसिला जब रास्ता मिलता नहीं ,
हैं हवाएं इस तरह मेरा दिया जलता नहीं ।

चल रहे थे वो बराबर खो गए हैं एकबयक ,
किस गली में मुड़ गए हैं वो पता मिलता नहीं ।

क्या सुनाएँ दास्ताँ क्या अपना अफसाना कहें ,
मुंह की सुनते हैं यहाँ दिल का कोई सुनता नहीं ।

'इश्क' है ये ही रवायत खैर- ख्वाहों के लिए ,
जब बुरा हो दोर तो दर कभी खुलता नहीं ।


इश्क सुल्तानपुरी

Monday, May 12, 2008

क्या करेंगे आज क्या बाकी रहा.
मयकदे में देर तक शाकी रहा..

.जोड़ते हैं रोज कुछ टूटा हुआ.
चलिए अब बस कीजिए काफी रहा .

.. फिर से आकर बज्म में शमिल हुए
सुन नहीं पाए थे क्या उसने कहा...

इश्क क्या करते कोइ सुनता naheen
jo शुरू में आ गया बाकी रहा.........