Thursday, May 22, 2008

कैसे बनायें सिलसिला जब रास्ता मिलता नहीं ,
हैं हवाएं इस तरह मेरा दिया जलता नहीं ।

चल रहे थे वो बराबर खो गए हैं एकबयक ,
किस गली में मुड़ गए हैं वो पता मिलता नहीं ।

क्या सुनाएँ दास्ताँ क्या अपना अफसाना कहें ,
मुंह की सुनते हैं यहाँ दिल का कोई सुनता नहीं ।

'इश्क' है ये ही रवायत खैर- ख्वाहों के लिए ,
जब बुरा हो दोर तो दर कभी खुलता नहीं ।


इश्क सुल्तानपुरी

3 comments:

शोभा said...

कैसे बनायें सिलसिला जब रास्ता मिलता नहीं ,
हैं हवाएं इस तरह मेरा दिया जलता नहीं ।

चल रहे थे वो बराबर खो गए हैं एकबयक ,
किस गली में मुड़ गए हैं वो पता मिलता नहीं ।
अति सुन्दर

Amit K Sagar said...

bahut hi khubsurat rachnaa...keep it up...
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ultateer.blogspot.com

Asha Joglekar said...

ये गज़ल तो बहुत ही खूबसूरत है ।
क्या सुनाएँ दास्ताँ क्या अपना अफसाना कहें ,
मुंह की सुनते हैं यहाँ दिल का कोई सुनता नहीं ।

'इश्क' है ये ही रवायत खैर- ख्वाहों के लिए ,
जब बुरा हो दोर तो दर कभी खुलता नहीं ।

दिल की होना चाहिये न, और दौर होना चाहिये ।