Thursday, June 5, 2008

यह काल कहाँ ले जाएगा , है यक्छा प्रश्न नव पीढी का .

रोहन को आधार मिला , टूटे बांसों की सीढी का ॥

योवन की उर्वरा लगा , अवसाद की फसलें काट रहे .

तन के तरुवर को मृदा बना , अनंत कूप को पाट रहे ॥

असफलता से लड़ते-लड़ते, रेखाएं बनी ललाटों पर ।

मन्दिर-मस्जिद भी ऊब चुके , हैं ताले पड़े कपाटों पर ॥

सुधा कलश भी सूख गया , बस गरल घुला है तंत्रों में ।

विष को अमृत करने वाली , अब शक्ति नहीं है मंत्रों में ॥

क्छुधा ने टाप को विजित किया ,महालाक्छ्या निज स्वार्थ्य हुआ।

दर्शन के अंतश से निकला वो महाज्ञान भी व्यर्थ हुआ ॥

है पास हमारे जो कुछ भी , यदि उसमें संतोष नहीं ।

साधन कम हैं याचक ज्यादा , प्रकृति का इसमें दोष नहीं ॥

संसार बिचारा क्या देगा , जो स्वयं खड़ा झोली फैलाये ।

इससे लेने से अच्छा है , हम इसको कुछ देकर जायें ॥

के ० के ० मिश्रा

''इश्क '' सुल्तानपुरी ।