Thursday, June 26, 2008

गूँथ रहा है सुबह से जगकर,
रिश्तों की चौखट पर।
माथे पर बल आ जाता है ,
थोड़ी सी आहट पर।।


कितने धागे कितनी लड़ियाँ,
कितने रंग के दाने हैं।
गिनता है बिसराता है,
प्यार भरी मुस्काहट पर।।


तपते दिन और शीतल रातें,
मशरूफी हर मौसम में।
रोज यहाँ पछताता है,
बिस्तर की सिलवट पर।।


'इश्क' ये इन्सां का अफसाना,
रिश्ते बुनते जाना है।
नए सहारे खोज रहा है,
हर दिल की अकुलाहट पर।।