Wednesday, November 18, 2009

इक आदमी पाया गया है



हमको हर इक दर पे अजमाया गया है
कारवाँ के बीच मे इक आदमी पाया गया है

रोज़ बारीकी से सुलझाता हूँ उलझे मसले
सिलसिले हैं नित सवालों के नया लाया गया है


फ़िर रहे उम्मीद पर थम जाएगा ये दौर भी
फ़िर किसी आवाज़ मे जोश--ग़दर पाया गया है

सोंचा था हम भी चलें टूटे दिलों को जोड़ दें
हमको ही काफ़िर पुकारा जुल्म ये ढाया गया है

देखना मजमून का चर्चा कर दे बज़्म मे
ख़त भी कासिद से ही लिखवाया गया है

देने वाला है दगा कोई ख़बर फ़िर से छपेगी
हाथ दुश्मन से मेरा खलवत मे मिलवाया गया है

"इश्क" जब भी गर्दिशों से जंग से हम बच गए
हुश्न के हाथों की तलवारों से मरवाया गया है

Wednesday, May 13, 2009

बहुत मोहताज़ हूँ




बहुत मोहताज़ हूँ लेकिन दिल-ऐ-जागीर रखता हूँ।
छुपाकर अपने सीने मे तेरी तस्वीर रखता हूँ॥



बदलते हैं यहाँ हालात मौसम के इशारे पर।
मैं वो माली हूँ गुलशन मे तेरी तासीर रखता हूँ॥



तुम्हारी बज्म से हटकर मैं चुप हूँ कुछ नहीं कहता।
जहाँ चर्चा तुम्हारा हो वहीं तक़रीर रखता हूँ॥



मोहब्बत से मेरी आजाद होना गैर-मुमकिन है।
चहर दीवारी है ऊंची बंधी जंजीर रखता हूँ॥



फ़िदा हैं ''इश्क'' यूँ अब शायरी का शौक करते हैं।
जुबाँ पर लब्ज-ऐ-ग़ालिब है जिगर मे मीर रखता हूँ॥



Saturday, April 18, 2009

हकीकत और ख्वाबों मे




ये दुनिया वो नही दिखती है जो तामीर होती है।

हकीकत और ख्वाबों मे अलग तस्वीर होती है॥



किसी की बेवफाई का गिला करके भी क्या हासिल।

हँसी सूरत मे जो शीरत है वो बेपीर होती है॥




फरेबी की है ये ख्वाहिश कि मैं उस जैसा हो जाऊं।

नहीं बन पाया मैं ये खून की तासीर होती है॥



सियासतदां के अल्फाजों से तख्त-ओ-ताज मिलते हैं।

मगर शायर कि खुद्दारी भी इक जागीर होती है॥



ये जज्बातों का नक्शा ''इश्क'' कि कारीगरी देखो।

जहाँ दिल सीने मे हो पाँव मे जंजीर होती है॥




Thursday, April 9, 2009

वक्त का दरिया




वक्त के दरिया मे हलचल हो रही है।
गम की जानिब से हवाएं चल रही हैं॥


जिंदगी को बुनता हूँ हर रोज मैं।
टूट जाती है लडी जो कल रही है॥


सुबहा से उम्मीद मिलती शाम से हैरानियाँ।
जिंदगी इस कश-म-कश में ढल रही है॥


कर दिया इजहार-ऐ-दिल बेफिक्र हो।
जाने कब से ये मुहब्बत पल रही है॥


''इश्क'' की है आरजू हर शै बुझाऊँ।
जो दिलों मे नफरतों सी जल रही है॥





Tuesday, February 24, 2009

आरजू रकीबों की




वक्त जब हमपे बुरा आता है।

अपना साया भी मुंह छुपाता है॥


बादलों से गिला करें कैसे।
गम तो आँखों से बरस जाता है॥



रास्तों का कुसूर क्या होगा।

चलते चलते ही उन्मान बदल जाता है॥


ऐसी क्या हो गयी खता उससे।
आईना देख के शरमाता है॥


रेत का हो गया मरासिम भी।
पल मे बनता है बिगड़ जाता है॥


लाखों दुश्मन करीब होते हैं।
सच कोई जब जुबाँ पे लाता है॥


'इश्क' क्या आरजू रकीबों की।
दोस्तों से जो सितम पाता है॥

Tuesday, February 17, 2009

जिन्दा हूँ मैं





शाम फिर आयी
सवाल आया गुबार आया।
बेकरारी फिर तड़प उठी
कि रोना बेशुमार आया॥


रह गया बस कल का हासिल
आज भी
कर गया तनहा मुझे
हमराज भी॥


प्यास है बस सब्र भर
है दर्द का दरिया यहाँ।
वक्त का चुल्लू है खाली
लब नहीं खुलते यहाँ॥


कह दिया शाकी ने
कल आऊंगा मैं।
राह ताकना अब
तरसाऊंगा मैं॥


बस तेरी इक आस मे
जिन्दा हूँ मैं।
वरना तुझसे जिंदगी
शर्मिंदा हूँ मैं॥


"इश्क" करके रात भर का जागना
मलाल आया खुमार आया।
बेकरारी फिर तड़प उठी
की रोना बेशुमार आया॥


"इश्क' सुल्तानपुरी

Tuesday, February 10, 2009

डूबता जाता हूँ मैं




जब से की है आशिकी वादों से टकराता हूँ मैं।
राह चलता हूँ कहीं की और कहीं जाता हूँ मैं।।


है जेहन में साफगोई दिल है पाकीजा मेरा।
पर अजीजों की निगाहों से गिरा जाता हूँ मैं॥


आजमाईश है दिलों की या जरूरत है कोई।
तेरी हर उलझन मिटाने मे मिटा जाता हूँ मैं॥


जानता हूँ गम ही मिलते हैं मुहब्बत वालों को।
थाह लेने हद की हद तक डूबता जाता हूँ मैं॥


"इश्क" हूँ नफ़रत मुझे है इस तरह शब्-स्याह से।

रोशनी के वास्ते खुद को जला जाता हूँ मैं॥

Saturday, January 31, 2009

जिसको भी आजमाया


एतबार ने किसी के मझधार मे डुबाया।
किसको कहूं मैं अपना यहाँ कौन है पराया।।


दरिया थमा हुआ था माकूल थी हवा भी।
किसपे लगाऊँ तोहमत मांझी ने सितम ढाया।।


बनते हैं मरासिम भी बादल की शक्ल जैसे।
ये चहरे बदलते हैं तूफाँ-ए-गम जो आया॥


इक दौर था जो महफ़िल हमसे ही जगामग थी।
इक दौर आज है जब ख़ुद आशियाँ जलाया॥


रोता हूँ तड़पता हूँ जिसकी वफ़ा की खातिर।
उसने सुना है मेरा हर एक निशाँ मिटाया॥


मौका परस्त दुनिया लोगों की साजिशों ने ।
तालीम को बिगाडा ईमाँ को डगमगाया॥


अब ' इश्क ' क्या करुँ मैं किसको खुदा बनाऊँ।
वही धोखेबाज निकला जिसको भी आजमाया॥


Friday, January 30, 2009

गम-ए -आशिकी




फिर टूटा दिल किसी का कोई हो गया दिवाना ।

लो याद आ गया फिर गुजरा हुआ जमाना ॥



कई कत्ल हो चुके हैं गम-ए -आशिकी के पीछे।

देखो सितम सनम का मुसका के चले जाना॥



मुझे बारहा पुकारा रोंका था अजीजों ने ।

हुश्न-ए -जवां की जुम्बिश तेरी और खिंचे आना ।।




दिल पर बरस रहे है तेरी बेरुखी के पत्थर ।

टुकडों मे हो गया है शीशे का आशियाना ॥



यहाँ "इश्क" की गली मे कई नफरतों के घर हैं।

दस बार परखियेगा जब लेना हो ठिकाना ॥

Sunday, January 11, 2009

हकीकत


क्यूँ करे एतबार कोई क्यूँ ये दीवाना बने।
जब मुसीबत दर पे आये अपना बेगाना बने॥


कर लिया हर शौक हमने कर ली हद तक दिल्लगी।
अब नहीं ख्वाहिश है फिर से कोई अफसाना बने॥


खूब कर ले तू गुमां और खूब कर अय्याशियाँ।
दिन तेरा आने को है जब मिटटी का दाना बने॥


बस एक है खुद की कमाई नेकियाँ इन्सान की।
बाकी हैं वो दौलतें जिनके लिए अपना-बेगाना बने॥


है हकीकत एक ही जाना जिसे सबने जुदा।
मस्जिदों का दर हो चाहे द्वार बुतखाना बने॥


दोस्तों ये है रवायत प्यार के इस खेल की ।
हुश्न बन जाये शमां और ''इश्क'' परवाना बने॥