Wednesday, May 13, 2009

बहुत मोहताज़ हूँ




बहुत मोहताज़ हूँ लेकिन दिल-ऐ-जागीर रखता हूँ।
छुपाकर अपने सीने मे तेरी तस्वीर रखता हूँ॥



बदलते हैं यहाँ हालात मौसम के इशारे पर।
मैं वो माली हूँ गुलशन मे तेरी तासीर रखता हूँ॥



तुम्हारी बज्म से हटकर मैं चुप हूँ कुछ नहीं कहता।
जहाँ चर्चा तुम्हारा हो वहीं तक़रीर रखता हूँ॥



मोहब्बत से मेरी आजाद होना गैर-मुमकिन है।
चहर दीवारी है ऊंची बंधी जंजीर रखता हूँ॥



फ़िदा हैं ''इश्क'' यूँ अब शायरी का शौक करते हैं।
जुबाँ पर लब्ज-ऐ-ग़ालिब है जिगर मे मीर रखता हूँ॥



6 comments:

Vinay said...

बहुत दिनों बाद आपकी बेहतरीन ग़ज़ल का लुत्फ मिला, आपकी ग़ज़ल पढ़कर हर बार नया सा लगता है

ishq sultanpuri said...

bahut shukriya vinay dost

वीनस केसरी said...

बहुत सुन्दर गजल
पढ़ कर दिल खुश हो गया
वीनस केसरी

ishq sultanpuri said...

shukriya keshari jee

Asha Joglekar said...

बहुत बेहतरीन शेर कहे हैं इस गज़ल में ।

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

बहुत प्यारी और बहुत सलीके से गजल कही है आपने।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }