Tuesday, February 24, 2009

आरजू रकीबों की




वक्त जब हमपे बुरा आता है।

अपना साया भी मुंह छुपाता है॥


बादलों से गिला करें कैसे।
गम तो आँखों से बरस जाता है॥



रास्तों का कुसूर क्या होगा।

चलते चलते ही उन्मान बदल जाता है॥


ऐसी क्या हो गयी खता उससे।
आईना देख के शरमाता है॥


रेत का हो गया मरासिम भी।
पल मे बनता है बिगड़ जाता है॥


लाखों दुश्मन करीब होते हैं।
सच कोई जब जुबाँ पे लाता है॥


'इश्क' क्या आरजू रकीबों की।
दोस्तों से जो सितम पाता है॥

4 comments:

Vinay said...

वाह इश्क़ जी क्या बात है, हर शे'र दिल का टुकड़ा लग रहा है!

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चाँद, बादल और शाम

Kumar Mukul said...

है जेहन में साफगोई दिल है पाकीजा मेरा।
पर अजीजों की निगाहों से गिरा जाता हूँ मैं॥

अच्‍छी लगी पंक्तियां

Alpana Verma said...

रास्तों का कुसूर क्या होगा।
चलते चलते ही उन्मान बदल जाता है॥

बहुत ही खूबसूरत गज़ल लिखी है.
बधाई!

sandhyagupta said...

होली की हार्दिक शुभकामनाएँ.