Sunday, January 11, 2009

हकीकत


क्यूँ करे एतबार कोई क्यूँ ये दीवाना बने।
जब मुसीबत दर पे आये अपना बेगाना बने॥


कर लिया हर शौक हमने कर ली हद तक दिल्लगी।
अब नहीं ख्वाहिश है फिर से कोई अफसाना बने॥


खूब कर ले तू गुमां और खूब कर अय्याशियाँ।
दिन तेरा आने को है जब मिटटी का दाना बने॥


बस एक है खुद की कमाई नेकियाँ इन्सान की।
बाकी हैं वो दौलतें जिनके लिए अपना-बेगाना बने॥


है हकीकत एक ही जाना जिसे सबने जुदा।
मस्जिदों का दर हो चाहे द्वार बुतखाना बने॥


दोस्तों ये है रवायत प्यार के इस खेल की ।
हुश्न बन जाये शमां और ''इश्क'' परवाना बने॥

2 comments:

Vinay said...

आप आये बहार आयी,
वर्ना ख़िज़ाँ जाती न थी

---मेरा पृष्ठ
तख़लीक़-ए-नज़र

श्रद्धा जैन said...

बस एक है खुद की कमाई नेकियाँ इन्सान की।
बाकी हैं वो दौलतें जिनके लिए अपना-बेगाना बने॥

wah aaj apako dhoondh hi liya
bahut pahile tak aapko padhti rahi thi
hamesha se hi aapki kalam ki diwani

aaj blog par bhi mil gaye to bhaut baaten hongi