दर-दर की ठोकरें हैं बेबस है जिंदगानी ।
इकतरफा मुहब्बत है गम की है मेहरबानी ।।
दिल आशना हो जिस पर वो दूर जा बसेगा ।
किस शै से दिल लगाऊं किसको कहूं निशानी ।।
मेरे नक्श-ए-पा पे चलकर हमराह गम हुए हैं।
बचपन था खौफ मे अब हैरान है जवानी॥
वो हर कदम पे अपने तारीखें लिख रहे हैं।
हम कर गए बहुत कुछ कहते हैं मुंहजबानी॥
अब "इश्क " क्या तुम्हें भी गम रास आ गए हैं।
हर बार फ़ना होकर बन जाते हो कहानी॥
'इश्क' सुल्तानपुरी ॥
1 comment:
वाह वा...
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