
हम भी अब दिल को समझाने लगे हैं।
खास अपने जब से बेगाने लगे हैं॥
टूट जाते हैं हमेशा ये खयाली एतबार।
जब दिलों पर जख्म अनजाने लगे हैं।।
लूटते हैं मुल्क को अब रहनुमा।
सिक्कों से ईमान तुलवाने लगे हैं॥
मुफलिसी के आंसुओं की सींच से।
हम सियासी फसल उपजाने लगे हैं॥
झीना - झीना है जम्हूरी पैराहन।
बस जरा करवट से फट जाने लगे हैं॥
''इश्क'' कैसे ठीक हों हालात ये।
फैसले कातिल से लिखवाने लगे हैं॥
......................."इश्क" सुल्तानपुरी...........
6 comments:
झीना - झीना है जम्हूरी पैराहन।
बस जरा करवट से फट जाने लगे हैं॥
क्या बात कही है सर, बहुत खूबसूरत गज़ल ।
खूबसूरत गज़ल
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
मुफलिसी के आंसुओं की सींच से
हम सियासी फसल उपजाने लगे हैं ....
kyaa khoob khayaalaat ka izhaar kiyaa hai janaab ...
ashaar apni misaal aap haiN .
aap sabhee ka lakh-lakh shukriya
आपकी नई रचना के इंतज़ार में ।
shukriya naee rachana aa gayee hai
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