
तकदीर-ए-बेवफा तुझे कब से बदल रहा हूँ मैं।
मुख्तलिफ हैं हवाएं फिर भी सम्हल रहा हूँ मैं॥
शीशे का बदन ढांके पत्थर के लिबासों में।
हर सिम्त ठोकरों से बचकर निकल रहा हूँ मैं॥
बेबस हूँ बेक़रार हूँ बेजार हो चुका हूँ मैं।
इक बार आ जा जिंदगी तन्हा मचल रहा हूँ मैं॥
बेघर हूँ इस तपिश में हमसाया नहीं कोई।
तेरे दर्द से पिघल कर अश्कों में ढल रहा हूँ मैं॥
हैं सिलसिले ग़मों के कुछ खुशनुमा नहीं है।
गुलशन है तेरा फिर भी काँटों में पल रहा हूँ मैं॥
ए "इश्क" तेरा मंजिल-ओ-अंजाम मुक़र्रर है।
एक रोशनी की खातिर सदियों से जल रहा हूँ मैं॥
........."इश्क" सुल्तानपुरी।