वो जो राहे-करम मे रह गयीं मेरे पावों की निशानियाँ।
जो रहीम हैं उन्हें जोश दे जालिम को दे परेशानिया॥
कल वो ही नूरे-जहान था जो भी रहनुमा-ऐ-इमान था।
अब जुल्म-सर-मजलूम है हाकिम की बेईमानियाँ॥
हर दिल अजीज थे रहमदिल वो बुजुर्ग याँ से चले गए।
बिसर गयी जो सुकून थी वो दादी माँ की कहानियाँ॥
हर एक मद को है बेंचती मेरे मुल्क की ये सियासतें।
यहाँ पहरेदार हैं लूटते हुईं खाक लुट के जवानियाँ॥
है ''इश्क'' की यही इल्तजा उस पाक परवर-दिगार से।
इस ओर भी कर दे निगाह टी लौटा दे याँ की रवानियाँ॥
2 comments:
आमीन !
बहुत सही कही है जमाने की हकीकत
अब ना वो जमीं रही न ही आसमाँ रहा ।
'rekhta' par pakarD kaafi achchhii hai!
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