Sunday, March 2, 2014

जरा सा सोंचिये


                     














बलन्दी  पर पहुँच जाये तो फिर सूरज भी ढलता है ,
बदल जाता है सब कुछ वक्त  जब करवट बदलता है।


न इतरा ज़िन्दगी भर ज़िन्दगी की मौज में खोकर ,
जरा सा देख पीछे मौत का साया भी चलता है।


ये एक एहसास जिसको मैं  बयाँ कर ही नहीं सकता ,
तसव्वुर में किसी को पा  के अपना दिल मचलता है।


बहोत बेबाक होकर कुछ भी कह देना नहीं अच्छा ,
जरा सा सोंचिये हर बात का मतलब निकलता है।


सियासतदाँ की बातों  से बहक जाती है जब दुनियाँ ,
किसी की जान जाती है किसी का घर भी जलता है।


महज बकवास है हर आदमी का हक़ बराबर है ,
किसी की भर गयी झोली कोई  हाथों को मलता है।


पसर जाता है सन्नाटा सदाओं के सिमटते ही ,
हमारे शहर का माहौल जब करवट बदलता है।


बदल देता है सूरत ख़ाक  का रौंदा गया हिस्सा ,
वही  जब चाक पर चढ़कर किसी साँचे में ढलता है।


खिलौनों से परी से जाम  से मैख़ाना  साक़ी से ,
बहल  जाता है तब जाकर हमारा दिल सम्हलता  है।


सदाएँ  " इश्क़ " की  सुनकर मुसलसल रो रहा है वो ,
हक़ीकत  है कि चाहत हो तो पत्थर भी पिघलता है।


................... … के ० के ० मिश्र ............................... 
                       "इश्क़ " सुल्तानपुरी 
                          09415308956













Saturday, October 6, 2012

अच्छा है



इनसान  कोई खुद  से  बुरा है न भला है।
अच्छे हो तो अच्छा है बुरे हो तो बुरा है।।

इतना ही न देखो कोई सोने का घड़ा है।
पड़ताल करो ये भी कि क्या उसमे भरा है।।

तू चाहे तो रहने दूँ तू कह दे तो मिटा दूँ।
दिल के मेरे कागज़ पे तेरा नाम लिखा है।।

कोयल ने ये संगीत किस उस्ताद से सीखा।
बस इतना समझ लीजिये मालिक की कृपा है।।

बोएगा कोई और तो काटेगा कोई और।
इतिहास किताबों में तो ऐसा ही लिखा है।।

नक्सल हों कि डाकू हों कोई गैर नहीं हैं।
ज़ुल्म और गरीबी ने इन्हें जन्म दिया है।।

दुनिया के खुदाओं का कोई दीन न ईमान।
तू मान वही "इश्क़ " ने जो तुझसे कहा है।।


Monday, October 3, 2011

तकदीर-ए-बेवफा




तकदीर-ए-बेवफा तुझे कब से बदल रहा हूँ मैं।
मुख्तलिफ हैं हवाएं फिर भी सम्हल रहा हूँ मैं॥



शीशे का बदन ढांके पत्थर के लिबासों में।
हर सिम्त ठोकरों से बचकर निकल रहा हूँ मैं॥



बेबस हूँ बेक़रार हूँ बेजार हो चुका हूँ मैं।

इक बार आ जा जिंदगी तन्हा मचल रहा हूँ मैं॥



बेघर हूँ इस तपिश में हमसाया नहीं कोई।

तेरे दर्द से पिघल कर अश्कों में ढल रहा हूँ मैं॥



हैं सिलसिले ग़मों के कुछ खुशनुमा नहीं है।

गुलशन है तेरा फिर भी काँटों में पल रहा हूँ मैं॥



ए "इश्क" तेरा मंजिल-ओ-अंजाम मुक़र्रर है।

एक रोशनी की खातिर सदियों से जल रहा हूँ मैं॥


........."इश्क" सुल्तानपुरी।

आशनाई की मंजिल



जिंदगी में खुमार आ जाये।

तुमपे दिल बेक़रार आ जाये॥



कब से बेचैन हैं तुम्हारे लिए।

आ भी जाओ करार आ जाये॥



आशनाई की ये ही मंजिल है।

जब कशिश बेशुमार आ जाये॥



ये गुजारिश है मेरी गुलशन से।

तुमको छू लूं निखार आ जाये॥



तुम खुदा की एक नेमत हो।

इक नजर देखें प्यार आ जाये॥



"इश्क" ये मेरी तमन्ना ही सही।

ख्वाब आये बहार आ जाये॥


........................"इश्क"सुल्तानपुरी।









Sunday, October 2, 2011

इकतरफा मुहब्बत






दर-दर की ठोकरें हैं बेबस है जिंदगानी ।


इकतरफा मुहब्बत है गम की है मेहरबानी ।।




दिल आशना हो जिस पर वो दूर जा बसेगा ।


किस शै से दिल लगाऊं किसको कहूं निशानी ।।







मेरे नक्श-ए-पा पे चलकर हमराह गम हुए हैं।


बचपन था खौफ मे अब हैरान है जवानी॥





वो हर कदम पे अपने तारीखें लिख रहे हैं।


हम कर गए बहुत कुछ कहते हैं मुंहजबानी॥






अब "इश्क " क्या तुम्हें भी गम रास गए हैं।


हर बार फ़ना होकर बन जाते हो कहानी॥



'इश्क' सुल्तानपुरी

Saturday, May 14, 2011

हम भी अब दिल को समझाने लगे हैं







हम भी अब दिल को समझाने लगे हैं।

खास अपने जब से बेगाने लगे हैं॥



टूट जाते हैं हमेशा ये खयाली एतबार।

जब दिलों पर जख्म अनजाने लगे हैं।।



लूटते हैं मुल्क को अब रहनुमा।

सिक्कों से ईमान तुलवाने लगे हैं॥



मुफलिसी के आंसुओं की सींच से।

हम सियासी फसल उपजाने लगे हैं॥


झीना - झीना है जम्हूरी पैराहन।

बस जरा करवट से फट जाने लगे हैं॥



''इश्क'' कैसे ठीक हों हालात ये।

फैसले कातिल से लिखवाने लगे हैं॥



......................."इश्क" सुल्तानपुरी...........

Tuesday, November 16, 2010

इक नजर






जीने के लिए दुनिया मे ये भी खता करेंगे
तू जितना सताएगा हम उतनी वफ़ा करेंगे


तेरा रास्ता तकेगी मेरे दिल की बज़्म आखिर
तेरी इक नजर की खातिर सबको खफा करेंगे


तेरी इक झलक की दिल मे है आरजू सभी के
सब किछ निसार कर भी ये इक नफा करेंगे


मुझसे भी पहले कितने आये थे जाने वाले
आएगा
हश्र जिस दिन उस दिन दफा करेंगे


''इश्क'' ये लगन है दिल मे मेरे समाई
गैरों
से गिला छोड़कर खुद को सफा करेंगे

Wednesday, November 18, 2009

इक आदमी पाया गया है



हमको हर इक दर पे अजमाया गया है
कारवाँ के बीच मे इक आदमी पाया गया है

रोज़ बारीकी से सुलझाता हूँ उलझे मसले
सिलसिले हैं नित सवालों के नया लाया गया है


फ़िर रहे उम्मीद पर थम जाएगा ये दौर भी
फ़िर किसी आवाज़ मे जोश--ग़दर पाया गया है

सोंचा था हम भी चलें टूटे दिलों को जोड़ दें
हमको ही काफ़िर पुकारा जुल्म ये ढाया गया है

देखना मजमून का चर्चा कर दे बज़्म मे
ख़त भी कासिद से ही लिखवाया गया है

देने वाला है दगा कोई ख़बर फ़िर से छपेगी
हाथ दुश्मन से मेरा खलवत मे मिलवाया गया है

"इश्क" जब भी गर्दिशों से जंग से हम बच गए
हुश्न के हाथों की तलवारों से मरवाया गया है

Wednesday, May 13, 2009

बहुत मोहताज़ हूँ




बहुत मोहताज़ हूँ लेकिन दिल-ऐ-जागीर रखता हूँ।
छुपाकर अपने सीने मे तेरी तस्वीर रखता हूँ॥



बदलते हैं यहाँ हालात मौसम के इशारे पर।
मैं वो माली हूँ गुलशन मे तेरी तासीर रखता हूँ॥



तुम्हारी बज्म से हटकर मैं चुप हूँ कुछ नहीं कहता।
जहाँ चर्चा तुम्हारा हो वहीं तक़रीर रखता हूँ॥



मोहब्बत से मेरी आजाद होना गैर-मुमकिन है।
चहर दीवारी है ऊंची बंधी जंजीर रखता हूँ॥



फ़िदा हैं ''इश्क'' यूँ अब शायरी का शौक करते हैं।
जुबाँ पर लब्ज-ऐ-ग़ालिब है जिगर मे मीर रखता हूँ॥



Saturday, April 18, 2009

हकीकत और ख्वाबों मे




ये दुनिया वो नही दिखती है जो तामीर होती है।

हकीकत और ख्वाबों मे अलग तस्वीर होती है॥



किसी की बेवफाई का गिला करके भी क्या हासिल।

हँसी सूरत मे जो शीरत है वो बेपीर होती है॥




फरेबी की है ये ख्वाहिश कि मैं उस जैसा हो जाऊं।

नहीं बन पाया मैं ये खून की तासीर होती है॥



सियासतदां के अल्फाजों से तख्त-ओ-ताज मिलते हैं।

मगर शायर कि खुद्दारी भी इक जागीर होती है॥



ये जज्बातों का नक्शा ''इश्क'' कि कारीगरी देखो।

जहाँ दिल सीने मे हो पाँव मे जंजीर होती है॥




Thursday, April 9, 2009

वक्त का दरिया




वक्त के दरिया मे हलचल हो रही है।
गम की जानिब से हवाएं चल रही हैं॥


जिंदगी को बुनता हूँ हर रोज मैं।
टूट जाती है लडी जो कल रही है॥


सुबहा से उम्मीद मिलती शाम से हैरानियाँ।
जिंदगी इस कश-म-कश में ढल रही है॥


कर दिया इजहार-ऐ-दिल बेफिक्र हो।
जाने कब से ये मुहब्बत पल रही है॥


''इश्क'' की है आरजू हर शै बुझाऊँ।
जो दिलों मे नफरतों सी जल रही है॥





Tuesday, February 24, 2009

आरजू रकीबों की




वक्त जब हमपे बुरा आता है।

अपना साया भी मुंह छुपाता है॥


बादलों से गिला करें कैसे।
गम तो आँखों से बरस जाता है॥



रास्तों का कुसूर क्या होगा।

चलते चलते ही उन्मान बदल जाता है॥


ऐसी क्या हो गयी खता उससे।
आईना देख के शरमाता है॥


रेत का हो गया मरासिम भी।
पल मे बनता है बिगड़ जाता है॥


लाखों दुश्मन करीब होते हैं।
सच कोई जब जुबाँ पे लाता है॥


'इश्क' क्या आरजू रकीबों की।
दोस्तों से जो सितम पाता है॥

Tuesday, February 17, 2009

जिन्दा हूँ मैं





शाम फिर आयी
सवाल आया गुबार आया।
बेकरारी फिर तड़प उठी
कि रोना बेशुमार आया॥


रह गया बस कल का हासिल
आज भी
कर गया तनहा मुझे
हमराज भी॥


प्यास है बस सब्र भर
है दर्द का दरिया यहाँ।
वक्त का चुल्लू है खाली
लब नहीं खुलते यहाँ॥


कह दिया शाकी ने
कल आऊंगा मैं।
राह ताकना अब
तरसाऊंगा मैं॥


बस तेरी इक आस मे
जिन्दा हूँ मैं।
वरना तुझसे जिंदगी
शर्मिंदा हूँ मैं॥


"इश्क" करके रात भर का जागना
मलाल आया खुमार आया।
बेकरारी फिर तड़प उठी
की रोना बेशुमार आया॥


"इश्क' सुल्तानपुरी

Tuesday, February 10, 2009

डूबता जाता हूँ मैं




जब से की है आशिकी वादों से टकराता हूँ मैं।
राह चलता हूँ कहीं की और कहीं जाता हूँ मैं।।


है जेहन में साफगोई दिल है पाकीजा मेरा।
पर अजीजों की निगाहों से गिरा जाता हूँ मैं॥


आजमाईश है दिलों की या जरूरत है कोई।
तेरी हर उलझन मिटाने मे मिटा जाता हूँ मैं॥


जानता हूँ गम ही मिलते हैं मुहब्बत वालों को।
थाह लेने हद की हद तक डूबता जाता हूँ मैं॥


"इश्क" हूँ नफ़रत मुझे है इस तरह शब्-स्याह से।

रोशनी के वास्ते खुद को जला जाता हूँ मैं॥

Saturday, January 31, 2009

जिसको भी आजमाया


एतबार ने किसी के मझधार मे डुबाया।
किसको कहूं मैं अपना यहाँ कौन है पराया।।


दरिया थमा हुआ था माकूल थी हवा भी।
किसपे लगाऊँ तोहमत मांझी ने सितम ढाया।।


बनते हैं मरासिम भी बादल की शक्ल जैसे।
ये चहरे बदलते हैं तूफाँ-ए-गम जो आया॥


इक दौर था जो महफ़िल हमसे ही जगामग थी।
इक दौर आज है जब ख़ुद आशियाँ जलाया॥


रोता हूँ तड़पता हूँ जिसकी वफ़ा की खातिर।
उसने सुना है मेरा हर एक निशाँ मिटाया॥


मौका परस्त दुनिया लोगों की साजिशों ने ।
तालीम को बिगाडा ईमाँ को डगमगाया॥


अब ' इश्क ' क्या करुँ मैं किसको खुदा बनाऊँ।
वही धोखेबाज निकला जिसको भी आजमाया॥


Friday, January 30, 2009

गम-ए -आशिकी




फिर टूटा दिल किसी का कोई हो गया दिवाना ।

लो याद आ गया फिर गुजरा हुआ जमाना ॥



कई कत्ल हो चुके हैं गम-ए -आशिकी के पीछे।

देखो सितम सनम का मुसका के चले जाना॥



मुझे बारहा पुकारा रोंका था अजीजों ने ।

हुश्न-ए -जवां की जुम्बिश तेरी और खिंचे आना ।।




दिल पर बरस रहे है तेरी बेरुखी के पत्थर ।

टुकडों मे हो गया है शीशे का आशियाना ॥



यहाँ "इश्क" की गली मे कई नफरतों के घर हैं।

दस बार परखियेगा जब लेना हो ठिकाना ॥